Thursday, September 27, 2007

कविता --- बात ऐसे बढेला

बात त दिव्ज़ ह
दु बार जन्मेला

बात के जन्मदाता दु बेर कष्ट उठावेला
पहिले बात के पेट मे जन्मावेला
ओकरा बाद मुँह से उगिल देला
ऐसे ही बात बढेला

बात अगर पेट के पेटे मे रह जाई
त जन्मदाता के पेट खराब हो जाई
एहिसे उ सोचेला कि
काहे ना बात बढायी

बात के जब जन्म होला
त ओकर रूप वाक्य के होला
जब उ धीरे धीरे चलेला
त ओकरा पाँख जाम जाला
उ वाक्य से पद्य बन जाला
बात ऐसे ही बढेला

बात के लक्षण ई होला कि
केहू केहू से कुछ कहबो
ना करेला ओउर केहू जनला
बिना बाकियो ना रहेला
बात ऐसे ही बढेला

बात के गति बहुत तेज होला
शताब्दी फेल
एक से दु ,दु से चार मुँह पहुंच कर
बड़ी जल्दी मोटा जाला
बात ऐसे ही बढेला

घूम फिर के जब बात
गलती से कंही जन्मदाता
के पास पहुंचेला त उहो हैरान
एकरा के जन्म देहले रहनी
वाक्यांश
ई त घूम फिर , खा पी के
हो गईल गद्यांश

काश ऐसे पैसा बढीत
ऐसे ही रोजगार बढ़ीत
त कैसन रहित

1 comment:

चंदन कुमार मिश्र said...

बात के कहानी। अफवाह अइसहीं फइलेला। अन्तिम सवाल त बस सोचल जा सकेला।